प्र0 : साधु माँ - हे ब्रह्मपिता परमात्मा ! आपने ये कलियुग-काल कैसा बनाया है जिस काल में केवल और केवल अज्ञान का ही अँधकार छाया हुआ है किसी भी मनुष्य के मन में तिल-मात्र ज्ञान का प्रकाश दिखाई नही देता है और ना किसी भी मनुष्य के मन में परमात्मा के नाम का वैराग्य ही दिखाई पडता है।
- भक्ति माता का तो इस कलियुग में नाम और निशान तक नही है ; हे पिता ! ये कैसा कलिकाल है जिस काल को अज्ञान रूपी भूत ने गृष (खा) लिया है और ज्ञान के सत्य-प्रकाश को मनुष्य के मन से बुझा दिया है ?
- आज कलियुग में मनुष्य सत्य-ज्ञान का खण्डन करते हैं एवं असत्य और पाखण्ड को अपनाते हैं ; हे परम ऐसा किस लिए हो रहा है ?
उ0 : ब्रह्म उवाच -
जब जब हानि धरम की, तब तब ऐसौ होय।
मानस मन अज्ञानता, ज्ञान प्रकाश ना होय।।
- हे साधु ! कलियुग-काल में पाप की अति से धर्म की हानि होती है और धर्म की हानि से मनुष्यों के मन से भक्ति लुप्त जो जाती है और भक्ति के लुप्त हो जाने से ही मनुष्यों के मन से ज्ञान और वैराग्य का प्रकाश भी मिट जाता है ; हे साधु ! जब मनुष्य के मन से भक्ति, ज्ञान और वैराग्य मिट जाते हैं तो मनुष्य के मन में अज्ञान का जन्म हो जाता है जिस अज्ञान के अँधकार में मनुष्य को धर्म और सत्य दिखाई नही पडते हैं।
- कलियुग में मनुष्य के मन में केवल पाप और पाखण्ड ही निवास करते हैं
जहाँ देखै तहाँ कलिक में, पाखण्डी इंसान।
भक्ति ना वैराग है, ना सत्य ज्ञान पहचान।।
अति भयी पाखण्ड की, अँधकार मन छाय।
पाखण्डी इंसान कू, बचाय ना कोई पाय।।
धरम ना धीरज मन रहै, ना भक्ति नाम निशान।
पाखण्डी इंसान मन, ना पाप पुन्य पहचान।।
- हे साधु ! जो मनुष्य सत्य-ज्ञान का खण्डन करते हैं और झुठ जैसे पाखण्ड का इस कलिकाल में प्रचार करते हैं तो ऐसे मनुष्यों को समय आने पर मुझ धर्म के हाथ से कोई बचा नही सकता है क्योंकि पाखण्डियों ने ही कलियुग में सत्य का खण्डन किया है और अज्ञान जैसे अँधकार को पाखण्डियों ने ही जन्म दिया है ; कलियुग-काल में पाखण्डियों ने ही अनेकानेक मनुष्यों के मन से ज्ञान का प्रकाश मिटाया है और अज्ञान के अँधकार में असत्य और झूँठ का प्रचार करना शुरू किया है।
प्र0 : साधु माँ - हे ब्रह्मपिता परमात्मा ! एक पाखण्डी-मनुष्य जन-सामान्य के मन से ज्ञान के प्रकाश को कैसे मिटा सकता है ?
- क्या पाखण्डियों के पास कोई जडी जोती है जिससे वे ज्ञान के प्रकाश को बुझा देते हैं ? क्या मनुष्य ये जानते नही कि हम इन असत्य-पाखण्डियों के पास किस लिए जाते हैं वास्तव में वह हमें मिल भी पा रहा है या नही ?
- हे पिता ! ये संसार इन पाखण्यिं से क्यों अंजान बना रहता है ? इनकी सच्चाई को संसार क्यों नही जान पाता है ?
उ0 : ब्रह्म उवाच - हे साधु ! जब तक किसी भी मनुष्य के मन में सत्य-ज्ञान का प्रकाश रहता है जब तक कोई भी मनुष्य पाखण्डियों के पास नही जाता है क्योंकि उसे पाखण्डियों के कर्मों का ज्ञान होता है।
- जब तक मनुष्य के मन में सत्य-ज्ञान का थोडा बहुत भी प्रकाश होता है जब तक मनुष्य पाखंडियों को जानता भी है और पाखंडियों के कर्मों को पहचानता भी है।
निपट आँधरे जो भये, सो गये पाखण्ड पास।
सत्य ज्ञान परमात्मा, जिन नही मन विश्वास।।
- हे साधु ! आपने जो देखा और कहा वही सत्य है क्योंकि कलियुग-काल में किसी भी मनुष्य के मन में मुझ परमात्मा के नाम का सत्य वैराग्य नही है जिस वैराग्य से मनुष्य मुझ परमात्मा को प्राप्त कर लेता है और मेरे ही समान हो जाता है।
ज्ञान नही वैराग है, मन भारी अज्ञान।
भगती कू जानें नही, पाखण्डी इंसान।।
- हे साधु ! कलियुग में पाप की अति और हिंसा तो होते ही हैं लेकिन पाखण्ड की कोई सीमा नही रहती है और कलियुग में पाखण्ड की अति ही बुरे समय का संकेत है।
प्र0 : साधु माँ - हे ब्रह्मपिता परमात्मा ! क्या कलियुग में पाप कर्म और हिंसा से बढकर पाखण्ड की श्रेणी है ?
उ0 : ब्रह्म उवाच - हे साधु ! संसार में पाखण्ड जैसा कोई पाप कर्म और हिंसा नही है क्योंकि...
- पाखण्ड ही धर्म को हानि पहुँचाता है
- पाखण्ड से ही अज्ञान का जन्म होता है
- पाखण्ड के कारण ही कलियुग में मनुष्य के मन से धर्म-सत्य की पहचान मिट जाती है।
- पाखण्ड से ही भिन्न प्रकार के पाप-कर्म और हिंसा पैदा होते हैं।
कलियुग जैसे काल में, जो पाखण्डी इंसान।
सत्य धर्म छोडियौ नही, बन बैठे भगवान।।
साधु या कलिकाल में, बुरे कर्म पाखण्ड।
जाने ना भगवान कू, जो दे कर्मन कौ दण्ड।।
भगती नाम निसान ना, ना रहे ज्ञान वैराग।
सब मैटे पाखण्ड नै, मन मानस ना जाग।।
नास की जर पाखण्ड है, सोच समझ इंसान।
साधु भेष रावण धरियौ, सिया ना मन पहचान।।
पाखण्डी रावण भयौ, लीन्हौं नास कराय।
मानस तू समझै नही, तुलसी लिख गये आय।।
छल कपट पाखण्ड है, बुरौ भेष पाखण्ड।
सब जानें परमात्मा, जो समय संग देंय दण्ड।।
कलियुग काल बुरौ नही संता। जामें रहूँ ब्रह्म भगवन्ता।।
जहाँ नित सुमिरन मेरौ होई। कलियुग काल न व्यापै सोई।।
- हे साधु ! पाखण्डी इंसान को इस कलियुग का ज्ञान नही होता है कि यह काल पाखण्ड करने के लिए नही है बल्कि आत्म-कल्याण के लिए श्रेष्ट काल है।
- कलियुग काल में ही आत्मा का कल्याण हो सकता है बाकी तीनों कालों नही।
कलियुग ऐसौ काल है, जामें होय आत्म कल्याण।
और काल कोई नही, भजन ध्यान भगवान।।
कलियुग जैसे काल की, उमर ना कोई जान।
लम्बी उमर कलिकाल जो, करै आत्म कल्याण।।
प्र0 : साधु माँ - हे ब्रह्मपिता परमात्मा ! जिस कलिकाल में पाप की अति, छल, कपट, हिंसा और पाखण्ड जैसे कर्म होते हैं क्या उसी काल में आत्माओं का कल्याण होता है ? और उसी काल (कलियुग) की उम्र लम्बी क्यों होती है ?
उ0 : ब्रह्म उवाच - हे साधु !
- कलियुग काल में ही आत्मा अधिक से अधिक नर तन प्राप्त करती हैं जिसके कारण कलियुग में नर-तन की भीड-भाड से मनुष्यों के मन में अशान्ति की हा हाकार होने लगती है मन के अशान्त होने से मन व्याकुल रहने लगता है और वह व्याकुलता मनुष्य को उसकी असल पहचान से वंचित कर देती है...
- जैसे मछली जल में रहते हुए भी प्यासी रहती हो वह नही जानती कि इसी जल से मेरी प्यास बुझेगी उसी प्रकार मनुष्य का व्याकुल मन ये नही जानता कि इस कलिकाल में ही तेरी तडफ और अशान्ति का समाधान हरि-सुमिरन छुपा हुआ है।
- हे साधु ! कलियुग-काल में हरि-सुमिरन ही आत्माओं का कल्याण करता है ; कलिकाल में ही पाप, पाखण्ड, झूँट, कपट और हिंसा जैसे पाप कर्म पैदा होते हैं।
अति पाखण्ड पाप अति होई। झूँट कपट छल नर सब कोई।।
कारन अति और कछू नाहीं। मानस छल बल बस मन माहीं।।
- हे साधु ! सतयुग का जो समय होता है वह थोडे ही दिनों का होता है सतयुग समय ज्यादा ठहरता नही, सतयुग के बाद जब त्रेता-युग आता है तब त्रेता-युग, सतयुग समय से ज्यादा ठहरता है और उसके बाद जो द्वापर-युग आता है वह युग इन दोनों ही युगों से अधिक समय तक संसार में ठहरता है लेकिन हे साधु ! ये कलियुग के समय की सीमा इन तीनों ही युगों से अधिक होती है अर्थात जितने समय में सतयुग ; त्रेता और द्वापर होते हैं उतने समय का अकेला कलियुग होता है।
- हे साधु ! सतयुग ; त्रेता और द्वापर-युग में समय की सीमा कम होती है लेकिन मनुष्य के उम्र की सीमा अधिक होती है जबकि कलियुग के समय की सीमा अधिक होती है और मनुष्य के उम्र की सीमा कम होती है क्योंकि कलियुग के समय संसार में मनुष्य-शरीर अधिक से अधिक पैदा होते हैं और फिर अधिक से अधिक पाप और पाखण्ड जैसे कर्म करते हैं...
सत्य धरम पहचान ना, ना भजन ध्यान भगवान।
भीड भाड इंसान की, मन अँधे अज्ञान।।
- हे साधु ! सतयुग का जो समय होता है उस समय में अधिक मनुष्य नही होते हैं बल्कि जो मनुष्य होते हैं उनकी उम्र अधिक होती है। सतयुग के समय में मनुष्यों के मन में अज्ञान का अँधकार नही होता है बल्कि ज्ञान का प्रकाश होता है।
- सतयुग जैसे समय में पाप और पाखण्ड जैसे कर्म नही होते हैं बल्कि सतयुग में धर्म और सत्य का पहरा होता है जो आज इस कलियुग में नही है ; और कलियुग के बिना आत्माओं का कल्याण भी नही है...
प्र0 : साधु माँ - हे ब्रह्मपिता परमात्मा ! जो आत्मा इस कलियुग में जन्म ले चुकि हैं और आगे भी लेंगी वे आत्मा कलियुग में रहकर अपना कल्याण कैसे करें ; आप अपनी आत्माओं पर कृपा कर बताईये ?
उ0 : ब्रह्म उवाच -
कलियुग काल एक गुन होई। सोवत जागत सुमिरै मोई।।
मम सुमिरन आत्म कल्याण। मन विश्वास ध्यान भगवाना।।
- हे साधु ! मुझ परमात्मा का सुमिरन ही आत्मा का इस कलिकाल में कल्याण करता है सुमिरन करते समय मुझ परमात्मा में ही ध्यान होना चाहिए ; ध्यान संसार में इधर उधर नही भटकना चाहिए।
- हे साधु ! मनुष्य को संसार में रहते हुए जीवन में हानि लाभ कुछ भी हो लेकिन मुझ परमात्मा का अटूट विश्वास होना चाहिए क्योंकि मैं परमात्मा विश्वासी आत्माओं का ही कल्याण करता हूँ।
- ब्रहमज्ञान वाणी धर्म ग्रन्थ
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