कल्याण की धारा ; भक्ति किनारा

 


भक्ति एक परिचय : हे मनुष्य ! तेरे लिए बडे सौभाग्य की बात है कि आज ब्रह्मज्ञान वाणी धर्म-ग्रंथ के आधार पर माँ भक्ति स्वयं अपना परिचय दे रही है। 

मैं कल्यानी धार हूँ, भगती मेरौ नाम।
मन भीतर ही मैं बहूँ, मोहे राम नाम ते काम।।

- केवल भक्ति ही आत्म-कल्याण का मार्ग है ; और भक्ति का निवास स्थान मानवीय-मन है, जिस मन में श्रीहरि का सुमिरन निरंतर चलता रहता है वह जन (मनुष्य) सहज ही भक्ति को प्राप्त कर लेता है। 

जिनके मन मेरौ वास है, वे जानें आनन्द।
नारी रूप में मैं वसूँ, मैं ही परमानन्द।।

- जिस मन में परम-पवित्र भक्ति स्थान पाती हो वह जन कभी दुःख को प्राप्त नही होता है, वहां सदैव आनन्द ही आनन्द होता है। 

नोट : लेकिन दुर्भाग्य की बात ये है कि मनुष्य के मन की संका उसे कभी भक्ति के समिप नही जाने देती है।

- मनुष्य के निम्न मिथ्यावादी विचार उसे भक्ति से विमुख ही रखते हैं जिसके कारण वह मनुष्य अन्तःतय अकल्याण को ही प्राप्त होकर रह जाता है, मनुष्य सोचता है कि-

1 : पता नही परमात्मा हमारे सुमिरन/भजन को सुनता भी है या नही ?

2 : कहीं ऐसा ना हो हम व्यर्थ ही भक्ति में समय को व्यतित कर रहे हौं ?

3 : मृत्यु के बाद का क्या पता क्या होगा ? आत्मा होती भी या नही ?

- ऐसे ही मिथ्यावादी और संका से घिरे हुए सवाल हमारे मन को भक्ति की ओर नही बढने देते है लेकिन भगवान कहते हैं कि-

सदाँ फलै और होय सुख दाई। भगती कभी मिटी ना भाई।।
भगतन के बस हौंय भगवाना। साधु संत सभी ने जाना।।

हे मनुष्य ! तु अपने मन की मिथ्या संका को त्याग दे भक्ति का फल कभी व्यर्थ नही जाता है बल्कि अनन्त-जन्मों तक के लिए वह तेरे सुख का मूल ही बनता है।



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