साधु माँ : हे ब्रह्म पिता परमात्मा ! जब किसी मनुष्य को आत्म-ज्ञान हो जाता है तो फिर उसको इस संसार में सब कुछ व्यर्थ और असत्य क्यों लगने लगता है ?
ब्रह्म उवाच : हे साधु ! जब तक मनुष्य को आत्म-ज्ञान नहीं होता है तब-तक उसके मन में माया और संसार ही समाया रहता है जिसके समाने से मन और आत्मा संसार की सच्चाई को नहीं पहचान पाते हैं ; संसार के माया-जाल में फँसी हुई आत्मा ही तन के रिश्ते-नातों को अपना मानती है।
लेकिन जब मनुष्य को किसी कर्म/संगति या संस्कार के कारण आत्मिक-ज्ञान हो जाता है तो फिर वह मनुष्य अपने ही भीतर संसार की क्षंण-भंगुरता और जीवन की वास्तविकता हो देख लेता है। जिसके कारण-स्वरूप वह ज्ञानी-आत्मा संसार से अपनी मोह/ममता को हटा लेती है क्योंकि अब उस मुनष्य ने अपनी आत्मा में ही उस परम-सत्य को पा लिया होता है जो कभी मिटता ही नहीं है जबकि संसार के रिश्ते-नाते और माया कभी किसी भी जन्म में स्थाई नही रहते हैं।
इसलिये हे साधु ! अब आप ही बताओ कि ज्ञान होने पर कौन कहेगा कि संसार मिथ्या नही सत्य है ; जो संसार की क्षंण-भंगुरता से परिचित हो गया हो वे मिथ्याचारी संसार में भला कैसे टिक पायेगा ?
हे साधु ! रहते तो ज्ञानी-जन भी संसार में ही हैं लेकिन वे मन की बाहरी दुनिया को नहीं देखते वे तो अपने मन और आत्मा में उस दिव्य परम-पिता परमात्मा को ही देखते हैं जो सदा अजर-अमर और सत्य है; ज्ञानी क्षण-भंगुर संसार को नहीं देखता है, जो आज है और कल नहीं है यही ज्ञानियों की सत्यता है और इसीलिए ज्ञानीयों को बाहरी संसार व्यर्थ और असत्य लगता है।
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