साधु माँ : हे ब्रह्म पिता परमात्मा ! जिस आत्मा को आप संसार की माया में जन्म देते हो वह आत्मा संसार की माया से भला कैसे बच सकती है ?
ब्रह्म उवाच : हे साधु ! जब तक अर्जुन को मुझ परमात्मा ने संसार की माया का ज्ञान नहीं कराया था, तब तक अर्जुन संसार की माया में ही जीते रहे क्योंकि अर्जुन ने अपने आपको आत्मा नहीं शरीर जाना था। जब मुझ परमात्मा ने अर्जुन को आत्मा और शरीर का ज्ञान कराया कि हे अर्जन ! तुम शरीर नहीं आत्मा हो, तब अर्जुन का ज्ञान-नेत्र खुलते ही अर्जुन ने अपने आपको पहचान लिया कि मैं तो वास्तव में शरीर नहीं आत्मा हूँ। अर्जुन ने अपने मन में बसी हुई संसार की माया को हटा दिया। हे साधु ! मुझ परमात्मा का यह धर्म कि मैं मनुष्य आत्माओं को संसार की माया व आत्मा और शरीर का ज्ञान कराऊँ, फिर भले ही कोई मनुष्य-आत्मा अपने मन द्वारा संसार की माया में जिये या फिर माया से अलग अपने भीतर जिये। हे साधु ! हर मनुष्य अर्जुन नहीं बन सकता क्योंकि ये विधि का विधान है।
हरि हर विध जिबै जो कोई। आपे कू जानै नर सोई।।
हर के अंक मिटे ना काई। जैसी करनी तैसी पाई।।
जग माया ते वे बचें, जिनकू हरि बचाय।
और जगत बचता नहीं, ना ग्यान आत्मा पाय।।
Comments
Post a Comment