क्या कामवासना कल्याण में बाधा है ?


साधु माँ :
हे ब्रह्म पिता परमात्मा ! जिस काम-शक्ति को खुद आपने ही मनुष्य, जीव-जन्तु व पशुओं के तन में प्रवेश किया है उसी काम को आप अति बलवान कहकर जीतने की बात संसार के मनुष्यों से क्यों कहते हो ?

ब्रह्म उवाचः हे साधु ! मैं ब्रह्म काम-शक्ति को बलवान इसलिये कहता हूँ कि जो मनुष्य मुझ परमात्मा की भगती करना चाहते हैं और कामवासना को भी चाहते हैं तो ऐसे मनुष्यों को मेरी भगती नही करनी चाहिये।

भगती सौ कोई तप नही, जो काम कू देय जराय।
कामी मन भावै नही, मन चढत चढत गिर जाय।।

ब्रह्म उवाचः हे साधु ! काम के बल को तो केवल और केवल भगती तप से ही जीता जा सकता है क्योंकि भगती से बलवान तो और कुछ दूसरा है ही नही जिस भगती के कारण मुझ परमात्मा को भी संसार में उन आत्माओं के वस होना पडता है जिन आत्माओं ने अपने मनुष्य शरीर में भगती तप किया हो और काम जैसे महाबल को शरीर में जलाकर भस्म कर दिया हो; तो हे साधु ! उन आत्माओं को क्या कभी काम-शक्ति जीत सकती है जिन्होने मुझ परमात्मा को भी भगती बल से अपने अधीन कर लिया हो।

काम क्रोध मध लोभ नै, दीन्हौ धरम डिगाय।
काम अति कलिकाल में, कारन ग्यान लिखाय।।

साधु माँ : हे ब्रह्म पिता परमात्मा ! जिस काम-शक्ति को आपने इस धर्म-ग्रन्थ में बार-बार अति बलवान बताया है और उसी काम-शक्ति को भगती द्वारा सबसे पहले आपने साधु-संतों के तन व मन से मिटाया है। हे ब्रह्म पिता ! हम संतों को काम इतना बलवान नही लगता है जितना बलवान मन में ममता होती है जो ममता गृहस्ती साधु-संतों को बार-बार अपनी ही ओर खींचने की कोशिश करती है।

ममता कू मारें नही, जो दुख संतन देय।
काम सकती तन मारते, ममता छीन सुख लेय।।

ब्रह्म उवाचः हे साधु ! अभी आपको काम-शक्ति व ममता का ज्ञान नही है इसलिये मैं आपको अभी कामशक्ति व ममता का ज्ञान करा रहा हूँ।

अति विषैलौ काम है, डंक मार तन देय।
भगती मन आनन्द कू, काम छीन बल लेय।।

मन ममता मारूँ नही, मैं ममता के बस।
ममता कारन ही करें, भगती संत तन कस।।

लोभ न छोडूँ संत मन, ना छोडूँ तन काम।
जो दुसमन मेरे संत के, सो दुसमन मो राम।।

राम भजन जो मन करै, सो भगती तप जाय।
कामवासना तन नही, लोभ ना मन कू भाय।।

ब्रह्म उपवाच : हे साधु ! जिन साधु-संतों के मन की ममता मिट जाती है उन्हीं संतों  के मन को कामशक्ति बिच्छू बनकर बार-बार डंक मारती है और कामी साधु-संत ही भगती-मार्ग में काम के कारन कभी सफल नही हो सकते हैं।

जिनके मन ममता नही, कहा भगती कर जान।
ममता गृहस्ती बिन नही, संत करौ पहचान।।

ममता मिटै जो संत मन, जग जीव नही कल्यान।
ना कोई संसार में, पतौ ग्यान भगवान।।

ब्रह्म उपवाच-ः हे साधु ! जिस ममता ने संसार के जीव की पालना की है मैं परमात्मा उस ममता को मन से कैसे मिटा सकता हूँ। मेरे गृहस्ती साधु-संतों ने इस संसार में ममता के कारण ही तो जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, व पेड-पौधे सब पर अपने मन की ममता प्रकट करके इन सब में मुझ ब्रह्म के ही दर्शन किये हैं।

ममता बिन मन ना खिचै, संत सुनौ धर ध्यान।
क्योंकि तुम हो गृहस्त में, भगती गृहस्त महान।।

ब्रह्म उपवाच-ः हे साधु ! मैं सब जानता हूँ और जानते हुये भी मैं साधु-संतों के मन की ममता को मिटा नही सकता हूँ क्योंकि ममता तो केवल एक ही है, वही ममता जीव की पालना करती है और वही ममता मुझ परमात्मा को भजते-भजते मुझ जैसी हो जाती है भजन वाला जीव धन्य हो जाता है।

जाकौ ये संसार है, वाकू अति न भाय।
संतूलन संसार कौ, बिगर अति ते जाय।।

अति जगत उतपात कर, उतपाती इंसान।
ना जानैं जग अति कू, ना जानै भगवान।।

अति धूप ना तन सहै, अति ना सीतकाल।
वरसा भी अति की बुरी, अति बुरौ हो हाल।।

साधु माँ : हे ब्रह्म पिता परमात्मा ! इस संसार में पशु-पक्षी जीव आत्माओं से लेकर मनुष्यों तक किसी का भी मन ऐसा नही है जिस मन में कोई ना कोई कामना ना हो, पशु-पक्षी व जीव आत्माओं की कामना को भले ही ये संसार के मनुष्य न पहचान पायें लेकिन हे पिता जिस जीव को खुद आपने ही कामनाओं का शिकार बनाया है तो उसके मन की कामना को भला आपके सिवाय कौन मिटा सकता है।

ब्रह्म उपवाच : हे साधु ! मैं संसार के जीव आत्माओं का पिता ब्रह्म सब के मन में कर्मों द्वारा कामनाओं को प्रकट करके ही संसार में जीव का जन्म करता हूँ सबके मन की कामना को जानते हुये भी मुझ पिता का धर्म है कि मैं संसार में रहने वाली आत्माओं को मन की कामनाओं का ज्ञान करारूँ जिन कामनाओं के कारण संसार में आत्मा बार-बार नर-तन पाकर भी कामनाओं में ही उल्झकर अपने बहुमूल्य जीवन को व्यर्थ ही गवा देती हैं। हे साधु ! मैं परमात्मा मनुष्य आत्माओं को काम व कामना का ज्ञान कराता हूँ। 

अति काम और कामना, संत बुलावै मोय।
जो नर मोकू भूलता, अति करै जग सोय।।

अति बुरी मन कामना, नर तन ग्यान न होय।
जा ग्यान होय मन आत्मा, कभी अति करै ना कोय।।

हे साधु ! काम और कामनाओं के सिवाय संसार में है ही क्या; कामनाओं के बिना संसार में कोई भी जीव कर्म नही कर सकता है कर्म करना ही जीव आत्माओं का धर्म है मन की कामनाओं को तो हे साधु ! मैं परपिता भी नही मिटा सकता हूँ क्योंकि कामना से ही जीव कर्म करता है लेकिन जब मनुष्य के मन की कामना और काम सीमा को लांघकर सीमा के पार जाती है तब संसार में पाप की हाहा कार होने लगती है। अति काम और कामना ही पाप की असली जड हैं जैसे कि किसी मनुष्य को जुआ खेलने से धन का लाभ हुआ लाभ के कारण ही उस मनुष्य के मन में लोभ का बीज प्रकट हुआ, लोभ ने उस मनुष्य के मन को अपने वसीभूत कर लिया अब उस लोभी मन को जुआ के सिवाय और कुछ भायेगा ही नही; जिस तरह जुआरी मनुष्य अपने धर्म-कर्म को भूल जाता है उसी तरह, हे साधु ! मन की अति कामना भी मुझ परमात्मा के सुमिरन को भूला देती है इसीलिये मैं परमात्मा अति काम और कामनाओं पर बार-बार इस धर्म ग्रंथ में अंकुश लगाता हूँ। अति करने से धर्म नष्ट होता है।

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