साधु माँ : हे ब्रह्मपिता परमात्मा ! आप कहते हो कि जैसे मेरे संत शीतल होते हैं, ऐसी शीतलता तो और किसी में हो ही नहीं सकती है और दूसरी ओर आप कहते हो कि, हे साधु ! मेरे संतों का श्राप बड़ा भयांकर और अग्नि से भी तेज होता है, तो हे पिता ! आपके साधु-संत संसार को अपनी क्रोध-अग्नि में जलाकर भस्म क्यों करते हैं, सीतल मन में क्रोध क्यों होता है ?
ब्रह्म उवाच : हे संत आत्मा ! मेरे साधु-संतों ने तो इस अज्ञानी संसार को सदाँ-सदाँ से सीतल ही किया है मेरे संतों ने ही संसार को छल, कपट और पाखण्ड की राहों से बार-बार बचाया है। मैं ब्रह्म तो सिर्फ और सिर्फ कर्मों का हिसाब किताब करने वाला हूँ। हे संत आत्मा ! यदि किसी माँ के भोले-भाले बच्चे को कोई दुख दे तो, हे संत आत्मा ! क्या बच्चे की माँ उस दुख देने वाले को अच्छी दुआ दे सकती है ? वह माँ क्रोध में आकर बुरी ही दुआ देगी और मैं परमात्मा उस माँ की पुकार को अवश्य ही सुनूँगा क्योंकि उसके भोले-भाले बच्चे को दुख दिया गया है। हे संत आत्मा ! आत्मा ही राम है और राम ही आत्मा है, आत्मा की पुकार को संसार नहीं मैं परमात्मा ही सुनता हूँ मेरे संत भक्ति भी अपने लिये नहीं संसार की भलाई के लिये ही करते है, बादलों से जो जल संसार में बरसता है ये मेरे उन संतों की शीतलता की वर्षा संसार के ऊपर होती है जो आज संसार में नहीं रहे हैं ; उन्हीं संतों की भक्ति की शक्ति से पृथ्वी अपने गर्भ में अन्न व हर पेड़-पौधों के बीज को धारण करती है, उन्हीं संतों के वचनों द्वारा प्रकृति व पृथ्वी आज भी बंधी पड़ी है क्योंकि संत तो संसार के लिये जीता है और संसार के लिये ही वह भक्ति और तप करता है।
संसार में जीने के लिये संतों ने जल की वर्षा की, जल से भी अति सीतल ज्ञान की वर्षा संसार में बार-बार मेरे संतों ने ही की लेकिन हे संत आत्मा ! मेरे ऐसे संतों को भी इस अज्ञानी संसार ने नाना प्रकार के दुख ही दिये उन दुखों को भी झेलते हुये मेरे संतों ने अपने धर्म और सत्य का त्याग ना करते हुये संसार का भला ही किया है।
जब-जब बिप्ता परै जग आई। मेरे साधु करें सहाई।।
पिता-पिता किल्लाते आमें। जग बिप्ता कू संत मिटामें।।
हे संत आत्मा ! भयंकर क्रोध की अग्नि मेरे सीतल संतों की नहीं होती बल्कि वह मुझ परमात्मा की होती है जिन संतों के तन में मैं परमात्मा विराजमान हो जाता हूँ उन संतों के अपमान को सहन करना मेरा धर्म नहीं है जो मनुष्य मेरे संतों को दुख देकर अपमानित करते हैं तो हे संत आत्मा ! संतों के तन में विराजमान होकर संतों के मुख द्वारा मैं परमात्मा ही भयंकर अग्नि बनकर श्राप देता हूँ क्योंकि मैं संतों के दुख और अपमान को सह नहीं सकता हूँ।
!! ब्रह्मज्ञान वाणी/धर्मग्रंथ !!
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