ब्रह्म उवाच : हे साधु ! आप सत्य ही मानिये कि मैं ब्रह्म तो ओंकार ध्वनि ही हूँ जो ध्वनि आपके मन और कानों में गूँजती है। गूँजती हुई ध्वनि ही ब्रह्म है।
साधू माँ : हे ब्रह्मपिता ! तो आप मुझे अपने नये-नये रूपों को क्यों दिखलाते हो, ओंकार ध्वनि में ही मुझ आत्मा को दर्शन क्यों नहीं देते हो ?
ब्रह्मपिता : हे साधु ! मैं ब्रह्म अपने ज्ञानी साधु-संतों से क्या छिपा सकता हूँ जिन ज्ञानियों ने मुझ ओंकार-शक्ति को भी संसार से छिपने नहीं दिया उनसे मैं क्या छिपा सकता हूँ। हे साधु ! ये ओंकार ध्वनि ही तो ज्ञानियों के कानों द्वारा मन में प्रवेश करती है ओंकार ध्वनि ही ज्ञानियों के मन और कानों में गुँज-गुँज कर संसार के लिये मुझ-ब्रह्म का ज्ञान लिखवाती है। ओंकार ध्वनि को ज्ञानी मनुष्य ही सुनकर संसार के लिये ज्ञान लिखते हैं। ओंकार ध्वनि को सुने बिना संसार में कोई आत्म-ज्ञानी नहीं हो सकता है। ओंकार ध्वनि में ही पूरे ब्रह्माण का ज्ञान होता है। जिन-जिन ज्ञानियों को मुझ ब्रह्म ने ओंकार ध्वनि को सुनाया है उन्हीं ज्ञानियों ने मुझ ब्रह्म का ज्ञान संसार को कराया है।
बिन ओंकार ग्यान ना होई। साधु सत्य बताऊँ तोई।।
ध्वनि गूँजै मन और काना। मन और कान सुनें धर ध्याना।।
ओंकार ध्वनि बलवाना। भगती बान सुनें नर काना।।
भगती के बिन सुनी न जाई। ओंकार ध्वनी मन में भाई।।
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