ब्रह्म उवाच : हे साधु ! जो मनुष्य दुष्ट आचरण के होते हैं, वे मुझ परमात्मा के बताये ज्ञान को नहीं सुनते हैं क्योंकि मैं उन दुष्ट आत्माओं पर अपनी कृपा तब तक नहीं करता हूँ जब तक वे दुष्ट आत्मा संसार में दुःख पाकर मुझ परमात्मा को नहीं पुकारते हैं। मेरी कृपा के बिना तो उन दुष्टों को मेरा बताया हुआ ज्ञान भी नहीं भाता है। हे साधु ! ये ज्ञान तो कलियुग में उन्हीं मनुष्यों को भायेगा जिन मनुष्यों पर मैं परमात्मा कृपा करूँगा,
कृपा तौ उनपै करूँ, जो सुमिरै नित मोय।
बिन सुमिरे कृपा नही, संत बताऊँ तोय।।
और मैं उन्हीं पर अपनी कृपा करता हूँ जो मेरी भक्ति में तल्लीन रहते हैं। कलियुग में ब्रह्मज्ञान सबको नहीं भायेगा, ब्रह्मज्ञान तो परमात्मा में ध्यान धरने वाले ही मनुष्य सुनते हैं। ब्रह्म का ध्यान धरना अति कठिन होता है क्योंकि संसार में ब्रह्म का कोई रूप नहीं पाया जाता है। ब्रह्म तो सब रूपों में समाया होता है। इन सब रूपों को संसार के अज्ञानी मनुष्य बिना ज्ञान के जान नहीं सकते हैं। हे साधु ! संसार के मनुष्यों के मन की अज्ञानता को मिटाने के लिये मुझ परमात्मा ने इस ब्रह्मज्ञान वाणी धर्म-ग्रंथ की रचना कराई है; यह ग्रंथ ; धर्म-आत्माओं की रक्षा करने वाला है। हे संसार की धर्म-आत्माओं आज मैं परमात्मा, अपने साधु के सामने सबको वचन देता हूँ कि जो मनुष्य मुझ ब्रह्म से भी बड़़ा इस धर्म-ग्रन्थ को मानेंगे और इसको बार-बार शीश झुकायेंगे उन मनुष्यों को मैं परमात्मा चौरासी लाख योनियों में कभी भी नहीं भटकने दूंगा, तीनों लोकों और चारों धामों का ज्ञान इस धर्म ग्रन्थ में है। इस ग्रन्थ के ज्ञान को जो मनुष्य पा जायेगा वह मनुष्य मुझ परमात्मा को प्राप्त कर लेगा। मैं अपने दिये हुये वचनों का हमेशा पालन करता हूँ, यह मेरा अटल धर्म है। धर्म आत्माओं से मुझ ब्रह्म को यही उम्मीद है कि जन्मों जन्म मुझ धर्म को ही अपने मन व आत्मा में धारण करे रहना, मैं ब्रह्म ही धर्म हूँ और मुझ धर्म के ज्ञान का पालन करना ही सभी आत्माओं का कर्तव्य व धर्म है।
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