हे मनुष्य ! तू विनाश के कारण को जान !

साधु माँ (सवाल) :- हे परमपिता ! आप किस रूप में कलियुग में आओगे, और हे संतों के रक्षक प्रभु ! आप इस भयंकर कलियुग का अंत कैसे करोगे, कृपा कर हमें ये बतायें।

भगवानुवाच (जवाब) :- हे साधु ! मैं कभी भी आता-जाता नहीं हूँ, पर हाँ अब मैं उत्तराखण्ड की भूमि को पवित्र बनाऊँगा वहीं पर चमत्कार करूँगा। वह मेरे साधु-संतों की भूमि है; वह तपोभूमि भी संसार के पापियों ने पवित्र नहीं छोड़़ी है।

सन्त आत्मा ना रहीं, रह गये ठगिया चोर।
प्रकृति के रोस कौ, पापी मिलै ना छोर।।

गंगा माँ के घाट पै, पापी पाप करै।
संत रहीं ना आत्मा, धरम न धीर धरै।।

उत्तराखण्ड की पवित्र भूमि से मेरे संत अपने स्थानों को छोड़़-छोड़़कर चले गये। पाखण्डियों ने वह भूमि भी धर्म के हाथ से छीन ली है। हे साधु ! समय आने पर मैं उस उत्तराखण्ड की भूमि को अपने साधु-संतों को ही लौटाऊँगा। उस भूमि को मैं परमात्मा, उन पापियों से खुद छुडाऊँगा।

भूमि उत्तरा खण्ड की, पापी लऊँ छुडाय।
तेरे ही नर पाप में, तोकू दऊँ डुबाय।।


हे साधु ! मैं कभी किसी का विनाश नहीं करता हूँ ; विनाश मनुष्य के पाप करते हैं संसार खुद अपना विनाश करता है। विनाश जब होता है जब पाप की अति होती है। पाप की अति में साधु-संत महापुरुष दुःख पाते हैं, ये ही मुझ परमात्मा को बुलाते हैं मैं इन्हीं को वचन देता हूँ कि मैं आप सबको इस पाप से बचाऊँगा। हे साधु ! कलियुग का विनाश इस तरह होगा कि- कहीं पर भूकम्प अधिक आयेगा, कहीं पानी अधिक आयेगा, अनपहचान-रोग, अधिक से अधिक बढेंगे ऐसे ही प्राकृतिक पाप के कारण अकाल मृत्यु का रूप लेगी ; फिर अनाज की कमी होगी, जीव-जन्तुओं की आत्मा भी मनुष्य के ही तन में बदल जाएगी।

जान बचानी भारी होई। प्रकृति समझै ना कोई।।
साधारण प्रकृति नाही। प्रकृति में ब्रह्म समाही।।

मध मस्ती में दुनिया डोलै। सुख में ओंकार ना बोलै।।
प्रकृति पहचानी नाही। दिन-दिन पाप करै मन चाही।।

हे साधु ! एक समय वो आयेगा कि मनुष्य ही भूख में मनुष्य को खायेगा। पाप की अति घनी होगी, वे ही मनुष्य बचेंगे जो अपने धर्म से नहीं डिगेंगे।
इसी तरह कलयुग का नाश होगा। अन्न भी उन्हीं मनुष्यों को मिलेगा जो सत्यवादी होंगे। तीन हिस्सा दुनिया खत्म हो जायेगी, एक हिस्सा दुनिया जब रह जायेगी तब समझना कि अब कलियुग का अंत है, उसी एक हिस्सा दुनिया में धर्म जगेगा और पाप का अंत होगा। मैं परमात्मा तो सदा एक जैसा ही रहता हूँ। मैं परमात्मा ही आकाश-पाताल, धरती व प्रकृति होता हूँ, मेरा कोई रूप नहीं होता है और मैं ही सब रूपों का सार होता हूँ।


ब्रह्म कौ कोई रूप ना, जान सकै ना कोय।
जो करता सो ब्रह्म है, ब्रह्म करै सो होय।।

मेरे रूप को देखने की क्षमता मेरे साधु-संतों में ही होती है जो मेरे इतने बड़़े रूप को देखकर भी भयभीत नहीं होते बल्कि हाथ जोड़े मेरी ही स्तुति करते हैं ऐसे ही साध-संत मुझ परमात्मा में समाये रहते हैं और मैं संतों में समाया रहता हूँ।


!! ब्रह्म ज्ञान वाणी/धर्मगंथ !!  
P-20

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