ब्रह्मज्ञान कल्याण का आधार ?


साधू माँ द्वारा सवाल : हे ब्रह्म पिता परमात्मा ! आप इस पृथ्वी के इतने भारी भार को कैसे साधते हो और कैसे इस संसार-चक्र को चलाते हो ?

ब्रह्म उवाच : हे साधू ! जिस तरह संसार में आत्म-ज्ञानी साधू-संत मुझ परमात्मा को अपने मन की डोर में बांध लेते हैं उन ज्ञानियों की आत्मा मुझ परमात्मा से वचन ले लेती है कि हे पिता ! हम आत्मा जब-जब आपको संसार में आकर भूल जायें आप तब-तब हमारी भूल को क्षमा कर देना और हे पिता ! संसार में हम आत्मा आपके हाथ को भले ही ना पकड़ें लेकिन आप हमारे हाथ को पकड़े रहना ताकि संसार की माया हमको न सताये। 
इसी तरह हे साधू ! मुझ परमात्मा से सत्य-पृथ्वी ने वचन लिये थे कि हे स्वामी ! मैं पृथ्वी सत्य हूँ और संसार की माया को मैं अपने ऊपर बसा कर अचल नहीं रह सकती हूँ क्योंकि मेरे अचल हो जाने से ना तो जीव-आत्मा जीवित ही रह सकती हैं और ना कोई कर्म ही कर सकती हैं। इसलिये हे स्वामी !  मुझ पृथ्वी को वचन चाहिये क्योंकि मैं जीवों को जीवन देने वाली माता हूँ। माता जीवन देती है लेती नहीं, तब हे साधू ! मुझ परमात्मा ने पृथ्वी को वचन दिये थे कि हे पृथ्वी आप निश्चिंत रहो, आपने तो सत्य ही कहा है आपके अचल होने से संसार में हवा-पानी कुछ भी नहीं रहेगा इसलिये मैं परमात्मा आपको वचन देता हूँ कि पृथवी को अचल नहीं रहने दूँगा। पृथ्वी का चक्र चलाना मुझ ब्रह्म का कर्म भी है और धर्म भी। हे साधू ! जिस तरह मैं परमात्मा प्रकृति के अधीन होकर संतों के मन में जन्म लेता हूँ उसी तरह प्रकृति के अधीन होकर पृथ्वी के चक्र को चलाता हूँ।

पृथ्वी मेरे आधीन है, मैं पृथ्वी के होऊँ।
चक्र कभी रूकता नहीं, ना जागूँ ना सोऊँ।।

क्योंकि पृथ्वी सत्य है, चक्र कू धरम चलाय।
सदाँ वचन के बद्ध हूँ, साधू सत्य बताय।।

ब्रह्म उवाच : हे साधू ! मैं ब्रह्म तो ब्रह्मज्ञान को समस्त संसार के लिये ही लिखवाता हूँ। जिस ज्ञान में तन और आत्मा को पहचानने का ज्ञान हो उस ज्ञान को कभी भी साधारण नहीं मानना चाहिये। जिस ज्ञान में तन की कोई जात-पात न हो और अपने व पराये नाते-रिश्तों के भेदभाव की बात न लिखी हो उस ज्ञान को पाने के सभी अधिकरी होते हैं। हे साधू ! मैं परमात्मा संसार की सभी आत्माओं का एक ही धर्म हूँ। मैं कर्म नहीं हूँ, मैं तो ब्रह्म, धर्म हूँ, सत्य-पृथ्वी के चक्र को चलाना ही मुझ ब्रह्म का धर्म है।




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