साधू माँ ने पूछा : हे ब्रह्म पिता परमात्मा ! आप संसार पर कृपा कर अपना कोई एक मात्र चिन्ह बताओं जिससे ध्यान लगाकर ये संसार आपकी भक्ति कर, आत्म-ज्ञान प्राप्त कर सके ?
ब्रह्म उवाव : हे साधू ! मैं ब्रह्म धरती के कण-कण में समाया हुआ हूँ नीले आकाश, चाँद तारों व सूरज में मैं-ब्रह्म ही समाया हुआ हूँ, गहरे पाताल में भी मेरा ही निवास है। मैं ब्रह्म तो सब चिन्हों में पाया जाता हूँ। हे साधू ! आपने ये जो भक्ति वाली बात कही है कि हे भगवान आप कोई अपना एकमात्र चिन्ह बताओ जिससे संसार ध्यान लगाकर आपकी भक्ति करे; भक्ति करने के लिये मैं चिन्ह अवश्य ही बताऊँगा क्योंकि भक्ति करने वाला मनुष्य मुझे अति प्रिय है। हे साधू ! मुझ फैले हुये ब्रह्म को तो कोई विरला ही ज्ञानी देखता है लेकिन आकाश में ये जो चाँद, सूरज और तारे हैं इनको तो संसार देखता भी है और नाम से जानता भी है, आकाश, पाताल और चाँद तारों इन सब में मैं ब्रह्म ही सूर्य हूँ, ब्रह्म का मुख सूर्य है। सूर्य से बढकर मेरा और कोई चिन्ह नहीं है, सूर्य न हो तो क्या ये संसार हो सकता है ? सूर्यब्रह्म तो संसार के सामने ही घूमता फिरता रहता है, कौन कहता है कि ब्रह्म दिखता नहीं है ? ब्रह्म तो दिखता है लेकिन संसार अज्ञान बस जानता नहीं है। ज्ञानियों के सामने ब्रह्म प्रकट रहता है और अज्ञानियों के सामने ब्रह्म प्रकट रहते हुये भी उनसे दूर रहता है। जो मनुष्य सूर्य से भक्ति भाव प्रकट करते हैं, वे मनुष्य मुझ ब्रह्म को प्राप्त होते हैं, मैं उनकी भक्ति में निवास करता हूँ। मैं ब्रह्म सूर्य हूँ, मैं ब्रह्म संसार का चक्रवृति राजा और पिता भी हूँ। राजा के नाते मैं संसार का पालन करता हूँ, पिता के नाते मैं ब्रह्म संसार को अच्छे-बुरे कर्मों का ज्ञान भी देता हूँ। जो मनुष्य सूर्य को मुझ-ब्रह्म का एकमात्र चिन्ह जानकर मेरी भक्ति निस्वार्थ भाव से करेगा उस मनुष्य के सब मनोरथों को मैं ब्रह्म पूरे करूँगा और उसकी ही आत्मा में मैं उस मनुष्य को अपना दर्शन भी कराऊँगा। हे साधू ! यह मेरा आपसे वायदा है मैं अपने दिये हुये वायदे को धर्म सहित निभाता हूँ।
ब्रह्म पिता परमात्मा, मुख दुनिया की ओर।
अग्यानी मुख फेरते, लगै ना मन की डोर।।
सूरज बिन संसार ना, देख मनुज धर ध्यान।
ब्रह्म पिता परामत्मा, सूरज मुख पहचान।।
ब्रह्म पिता परमात्मा, सत्य रहे बतलाय।
जाते नर तन आत्मा, भगती लेंय कराय।।
हे साधू ! मैं सूर्य ही साक्षात ब्रह्म भगवान हूँ, मैं सूर्य ही अपनी गर्मी के तापमान से बादलों द्वारा संसार में जल बरसाता हूँ और मैं सूर्य ही चाहूँ तो संसार के बूँद-बूँद जल को गर्मी के तापमान से सोक सकता हूँ और हे साधू कलियुग के अन्त समय में ऐसा ही होगा क्योंकि कलियुग में ही अन्न और जल की कीमत नहीं जानी जाती है। मैं सूर्य ही प्रकृति हूँ, प्रकृति मुझ सूर्य से अलग नहीं है। मैं सूर्य जब जहाँ जैसा चाहता हूँ वहीं पर प्रकृति के रूप में वैसा करता हूँ। हे साधू ! मुझ ब्रह्म (सूर्य) को आज तक किसी ने भी नहीं जाना है, अज्ञानीयों के लिये तो मैं ब्रह्म प्रकट भी अप्रकट होता हूँ। मैं सूर्य ही ब्रह्म के रूप में संसार में फैला हुआ हूँ।
मेरौ रूप सूर्य होई। साधू सत्य बताऊँ तोई।।
नाम अनेक धरै संसारा। ब्रह्म न पाबै कोई पारा।।
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