साधू माँ : हे ब्रह्म परमात्मा ! आप कहते हो कि मैं ब्रह्म तो सृष्टि की रचना करने से पहले भी था और आज भी हूँ, और आगे भी रहूँगा, तो हे परमात्मा ! आप ऐसी कौनसी शक्ति हो जो हम ज्ञानी-संतों की सोच से परे हैं ?.

ब्रह्म उवाच : हे साधु ! मैं वही हूँ जो आप हैं, मैं आपसे अलग नहीं हूँ; जो मनुष्य अपने आपको जान पाता है वही मनुष्य मुझ ब्रह्म को पहचान लेता है। मुझमें और संसार के जीव आत्माओं में फर्क सिर्फ इतना है कि मैं ब्रह्म संसार की रक्षा व पालन पोषण करता हुआ चारों दिशाओं में निराकार होने के कारण चक्कर लगाता रहता हूँ।

ऐसी दिसा एक ना कोई। जामें संत ब्रह्म ना होई।।
जग पालन मैं ब्रह्म ही करता। जानै संत जो राम सुमरता।।

हे साधु ! मैं ब्रह्म तो वह शक्ति हूँ जो मुझको जहाँ सुमरता है मैं वहीं उसके मन में प्रकट हो जाता हूँ। मैं ब्रह्म गंगा बनकर पृथ्वी पर बहता हूँ, आत्मा बनकर सबके तन में निवास करता हूँ। काम, क्रोध, लोभ और मोह का त्याग करने वाला ही मनुष्य मुझ सत्य ब्रह्म की पहचान कर सकता है।

ब्रह्म पिता परमात्मा, जग जानै ना तोय।
सब तन में हरी तुम बसौ, संत कहै मन रोय।।

काम क्रोध मध लोभ कौ, त्यागन वही करें।
जिन पै कृपा आपकी, सिर ऊपर हाथ धरें।।

हे साधु ! मैं ब्रह्म सब में भी हूँ और सब से अलग भी हूँ, अलग होकर संसार के लिये कर्म करता हूँ और सब में होकर कर्मों के कर्म-फल देता हूँ, निराकार भी मैं हूँ और आकारी भी मैं ही हूँ। हे साधु ! जहाँ-जहाँ आप मुझको देख चुके हो मैं ब्रह्म वहीं-वहीं हूँ। मैं ब्रह्म ज्ञानी साधु-संतों से अलग नहीं हूँ।

कृपा तौ उन पै करूँ, जो सुमिरै नित मोय।
बिन सुमिरे कृपा नहीं, संत बताऊँ तोय।।

करै बुराई ब्रहम की, नरक में होय निवास।
मुक्ति मिलै ना आत्मा, ना नर तन की आस।।

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