ब्रह्म उवाचः- हे साधु ! गीताज्ञान और रामचरित-मानस के बाद *ब्रह्मज्ञान वाणी धर्म ग्रंथ* मेरी तीसरी मुखारविंद वाणी है ये ग्रंथ पाप का दुश्मन है और धर्म का रक्षक है। यदि पापी मनुष्य भी इसको पवित्र-मन व ध्यान से पढ़ेंगे तो वे भी पाप से मुक्त हो जायेंगे। ये ग्रंथ मनुष्य को धर्म का रास्ता बतायेगा पाप के रास्ते से बार-बार हटाकर सीधा धर्म के रास्ते पर चलायेगा इसका अनुशरण मनुष्य के मन और आत्मा पर पाप की परछाई भी नहीं पड़़ने देगा। हे साधु ! ये कोई साधारण ग्रंथ नहीं, इसमें तो मुझ परमात्मा की वह शक्ति समाई हुई है जिसको पापी लोग देख-देखकर ही डरेंगे, धर्मात्मा-मनुष्य ही इस ग्रंथ को पढ़़ेंगे, वे ही इसकी छाया में बैठेंगे बाकी तो इससे दूर-दूर भागेंगे, जो मनुष्य कलियुग में धर्म का अनुशरण करेगा वही मनुष्य मेरे इस ग्रंथ का अधिकारी होगा। जो मनुष्य मेरे संत के लिखे इन अमूल्य अंकों को मोती मानकर इनको हंस की तरह चुगेंगे और इनको समझेंगे, वे मनुष्य मेरे परम पद को पायेंगे। मैं जो वचन देता हूँ उसको पूरा करता हूँ। मैं सत्य वचन का पालन करता हूँ और ये जो ब्रह्मज्ञान के पवित्र अंक हैं इनको कोई-कोई हंस ही चुगेगा। वही मनुष्य इनको मोती की तरह चुगेंगे जो सत्य के रास्ते पर चलेंगे। उन्हीं मनुष्यों से मैं धर्म की स्थापना कराऊँगा। एक चौथाई दुनिया ही बचेगी उसीमें धर्म जगेगा। तीन हिस्से पाप के खत्म हो जायेंगे, धर्म ही पाप को मारेगा, धर्म जगेगा और पाप मिटेगा। मेरा काम तो सोये मनुष्यों को जगाने का हैं। अब रही उनकी किस्मत, कौन सोता है कौन जागता है। मैं तो सबको एक समान ही संदेश भेजता हूँ क्योंकि मैं सबका एक परमात्मा होता हूँ जैसे माँ अपने बच्चों में भेद-भाव नहीं करती, सब का हिस्सा देती हैं लेकिन उनकी जो किस्मत में दुख-सुख होता है उसका हिस्सा माँ-बाप नहीं करते, उसको वही भोगता है जो करता है। उसी प्रकार धरती पर जब धर्म की कमी होती है तभी मैं संसार को संतों द्वारा अपना परिचय देता हूँ। परिचय भी इसलिये देता हूँ कि जब धरती पर पाप ज्यादा बढ़ जाता है और धर्म छिप जाता है, धर्म इसलिये छिप जाता है कि धर्म मेरा और मेरे संतों का होता है। पाप की अति होने के कारण ही प्रकृति भी रोष में आ जाती है। धरती, साधू और प्रकृति इन तीनों में मुझसे ज्यादा शक्ति होती है, मैं तो बिना हाथ-पैर वाला ब्रह्म हूँ। संसार में मेरा साधू ही मेरा साथी होता है जिसके सहारे मैं इस पाप को मिटाता हूँ और धर्म को बसाता हूँ। मैं संसार का पिता हूँ क्योंकि संसार को मैं ही बनाता हूँ और मैं ही अन्त करता हूँ। जो भी कुछ हूँ, वो मैं ही हूँ।
साधु ब्रह्म के ग्यान कू, सब कोई ना पायें।
ब्रह्म ग्यान उनकू मिलै, नित उठ ध्यान लगायें।।
ब्रह्म ग्यान गहरों घनौ, बिरला कोई पाय।
जो पाबै सो आत्मा, धन्य जगत है जाय।।
इतनै मन डूबै नहीं, अपने आत्म-राम।
ग्यान मिलै ना ब्रह्म कौ, ना मन कू आराम।।
नित उठ ध्यान लगाईये, धरती और आकाश।
ये दोनों ही ब्रह्म हैं, ये ही आत्म-विश्वास।।
धरती ऊपर सब बसें, सब नीचें आकाश।
जीव आत्मा ब्रह्म है, सत्य कहें हरी दास।।
https://www.youtube.com/watch?v=MCaJ-WXd7-s
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